यह सागर क्युं गहरा-सा लगता है अब, जिसकी अनन्त गहराइयाँ मैं क्षण भर में माप आया था ? यह नभ इतना क्युं ऊँचा लगने लगा है अब, जिसकी ऊँचाइयों को अपने इन हल्के-से, निर्बल, विदीर्ण पंखों से कई बार छू आया था ? ये तूफान भी इतने मजबूत ना थे, जो तनिक भर पीछे धकेल सके मुझे !
परिवेश बदल गया है, यह सागर गहरा गया है, यह आसमान विस्तृत हो चला है या ये तूफान साहसी और दृढ़ हो चले है, या मैं अपने आप से खो चला हूँ कहीं ! समय बदल रहा है, या यह बस गुजर रहा है और मैं वहीं ठहरा रह गया अपनी विजय की खुशी में, खोखले-से उद्घोष लिये !
सही तो यही है, यह मन माने या अपनी अंधी इन आंखों पर दंभ की, मिथ्या, कल्पित कतरनें लपटे रहे । मैं ही थक हार गया हूँ, मैं निढाल-सा पड़ गया हूँ, मैं स्पर्धा से बाहर हो चला हूँ । कुछ व्यस्तताओं ने मुझे छीन लिया है खुद से, कुछ इस भुलावे ने कि मैं जब चाहूँ तब स्पर्धा में ला खड़ा कर सकता हूँ खुद को । सत्य, माना कोई प्रतियोगिता आदमी के बस से परे नहीं, कोई दौड़ इंसान की इच्छाशक्ति के आगे कहीं नहीं टिकती, मगर इस दंभ में जीना भी तो सही नहीं । इस तरह हाथ पे हाथ धरे बैठे रहने कब उचित है भला ।
उठ, जाग । देख कतार में कहाँ है खड़ा हुआ तू । पतवार कहाँ है, धुंध में कहीं छिपी हुई; खोज जरा, वीर्य तलाश जरा अपना । किस मद में है तू खोया-खोया । पग धर इस भीड़ से इतर, कि तेरा भी कोई लक्ष्य है । कहीं दूसरों के सपनों पे जीते-जीते, इक लत-सी ना हो चले ये टुकडों पे पलती साँसें । बेबस ना हो चले कहीं जीवन यह । बस, अब बस कर ।
चीख-पुकार सब कायरता है ।
रोना-धोना कब मर्यादा है ।
चीख नहीं, हुंकार भर ।
रो मत । कोई ललकार कर ।
उठ अब, वरना सब व्यर्थ रहा ।
अन्तहीन जीवन, क्या अर्थ रहा ।
चल अब, बस कर नर ।
हे नर, अब बस कर ।
जीवन अपना सफल कर ।
कोई लक्ष्य, मन अटल कर ।
2 comments:
Beautiful Poem!
Thank You MS ...
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