Thursday, August 22, 2013 | By: Unknown

मेरा भारत

कहीं दूर, घर से दूर, एकांत तलाशता, मैं जा बैठा था एक चाय की थड़ी पर । चाय का शौक तो कालेज से ही है, जब दोस्तों के साथ यहाँ-वहाँ बैठा करते थे । काफी सारी थड़ियों पे चाय का आनंद लिया था । पीना, और फिर उन पर समीक्षा करना - बस यही काम था । उस वक्त राठौड़ की चाय का सिक्का चलता था ।

अब अकेले यूँ थड़ियों पर बैठना भी कम हो गया था । आज ना जाने कैसे मन हो आया और फिर नाम भी बहुत सुना था मीणा जी की चाय का । सोचा चलो इन्हें भी छू लेते हैं । थड़ी भी थी एकांत में, जंगल की देहरी पर, मुख्य सड़क से कुछ दूर भीतर की तरफ । जहाँ कम से कम यातायात का शोर तो कानों तक नहीं पहुँचता था । सुकून मिला मन को वहाँ जाकर ।

बस एक चाय बनाने को बोला ही था कि रिमझिम-रिमझिम झड़ी लग गई बारिश की । और सब दौड़ पड़े इधर-उधर अपना सिर बचाने को । देखते ही देखते भीड़ जमा हो गई मेरे चारों तरफ भी । कुछ देर में चाय भी तैयार थी । और चाय की चुस्कियों के साथ में भी रिमझिम का लुत्फ लेने लगा ।

कुछ देर की शांति के बाद, देखा तो लगा - अहा, क्या राहत मिली थी इन विचारों के कोलाहल से । कभी थमते ही नहीं थे ।
कभी-कभी इन विचारों से व्याकुलता भि बढ़ जाती है, सो कुछ देर इनका दूर रहना अच्छा-सा लगा ।

सहसा मेरी नजर एक छोटे-से मंदिर की ओर गई । एक आदमी, मंदिर के बाहर बैठा जैसे-तैसे करके खुद को बारिश से बचाने की कोशिश कर रहा था । मंदिर के छज्जे के नीचे, और नीचे घुसा जा रहा था । इतना पास चला गया कि वह मंदिर की दीवार को छू गया । इतने में मंदिर का पुजारी चीखा - निरा मुर्ख, कलमुये परे हट दीवार से, मंदिर को भ्रष्ट करने चला । वह हट गया दूर मंदिर से, फिर भीगने को मजबूर ।

पास ही दूसरी चाय की थड़ी थी । जैसे ही मेरी नजर उस पर गई, मैंने उसे इशारे में उस थड़ी की टीनशेड़ के नीचे जाने को कहा । वह मुस्कुराया, फिर जैसे ही एक कदम आगे बढ़ाया, थड़ी वाले ने भी उसे दुत्कार दिया । अब बारिश कुछ कम हो चली थी । उसने अपना टोकरा और झाडू उठाया और भागता हुआ, भीगता-सा निकल गया ।

अहसास हुआ - वाह रे, मेरे भारत ! तू महान है । अहा ! देख तेरे लोग कितने आगे निकल आये है । कितने विकसित हो चले है !


जाग, जाग अब तू इंसां
भोर भई, रैन गई ।
कल, कलकल बह चला
आज का सावन आता होगा ।
सहरा, पतझड़ सब बीत गये
रंग हरे-हरे से चढ़ गये  ।
आड़ंबर तज कर, गले लगा ।
बस इसां है सब, गले लगा ।

Saturday, August 17, 2013 | By: Unknown

अब बस कर

यह सागर क्युं गहरा-सा लगता है अब, जिसकी अनन्त गहराइयाँ मैं क्षण भर में माप आया था ? यह नभ इतना क्युं ऊँचा लगने लगा है अब, जिसकी ऊँचाइयों को अपने इन हल्के-से, निर्बल, विदीर्ण पंखों से कई बार छू आया था ? ये तूफान भी इतने मजबूत ना थे, जो तनिक भर पीछे धकेल सके मुझे !

परिवेश बदल गया है, यह सागर गहरा गया है, यह आसमान विस्तृत हो चला है या ये तूफान साहसी और दृढ़ हो चले है, या मैं अपने आप से खो चला हूँ कहीं ! समय बदल रहा है, या यह बस गुजर रहा है और मैं वहीं ठहरा रह गया अपनी विजय की खुशी में, खोखले-से उद्घोष लिये !

सही तो यही है, यह मन माने या अपनी अंधी इन आंखों पर दंभ की, मिथ्या, कल्पित कतरनें लपटे रहे । मैं ही थक हार गया हूँ, मैं निढाल-सा पड़ गया हूँ, मैं स्पर्धा से बाहर हो चला हूँ । कुछ व्यस्तताओं ने मुझे छीन लिया है खुद से, कुछ इस भुलावे ने कि मैं जब चाहूँ तब स्पर्धा में  ला खड़ा कर सकता हूँ खुद को । सत्य, माना कोई प्रतियोगिता आदमी के बस से परे नहीं, कोई दौड़ इंसान की इच्छाशक्ति के आगे कहीं नहीं टिकती, मगर इस दंभ में जीना भी तो सही नहीं । इस तरह हाथ पे हाथ धरे बैठे रहने कब उचित है भला ।

उठ, जाग । देख कतार में कहाँ है खड़ा हुआ तू । पतवार कहाँ है, धुंध में कहीं छिपी हुई; खोज जरा, वीर्य तलाश जरा अपना । किस मद में है तू खोया-खोया । पग धर इस भीड़ से इतर, कि तेरा भी कोई लक्ष्य है । कहीं दूसरों के सपनों पे जीते-जीते, इक लत-सी ना हो चले ये टुकडों पे पलती साँसें । बेबस ना हो चले कहीं जीवन यह । बस, अब बस कर ।

चीख-पुकार सब कायरता है ।
रोना-धोना कब मर्यादा है ।
चीख नहीं, हुंकार भर ।
रो मत । कोई ललकार कर ।
उठ अब, वरना सब व्यर्थ रहा ।
अन्तहीन जीवन, क्या अर्थ रहा ।
चल अब, बस कर नर ।
हे नर, अब बस कर ।
जीवन अपना सफल कर ।
कोई लक्ष्य, मन  अटल कर ।

Monday, March 11, 2013 | By: Unknown

The Pencil ...

An enlightening fuzzy shadow
Of a naked, bare, cryptic pencil
Blacken, darken, outrageous
The mystic shadow of the pencil

Writing rough-and-ready
Drawing decent beardy
the ink of the pencil
enables me writing nerdy

Too shallow is not the meaning
Try to perceive the subtle by reaming
make your eyebrow speculative and raise
Dream far the horizon of dreaming

the sacrifice touching the sky
the friction, shaping words, makes it cry
but it designs marvelous the words
giving the meaning to misnomer of my

Encounter an ocean, a lot I give it a try
Its profundity makes me confused & fry
The pencil, a pencil in my hand
Imprints on paper, makes me dry

Ravi Sisodia 'Pankh'
Sunday, March 10, 2013 | By: Unknown

सागर के सिहराने ...



सागर के सिहराने हूँ बैठा
तन्हा-तन्हा, सहमा-सहमा
भीतर तक अपने में ही सिमटा
और अतीत कुछ अपने दोहराता ।

वो सांझ की लाली, वो सूरज का जगना ।

वो रजनी काली, वो दिनभर तपना ।
तेरी ही हसरत, तेरे ही ख्वाबों में
खोया-खोया रहना
बेकल बतियाते रहना यारों से
उनमें तेरा ही बस जिक्र होना ।

तेरे कदमों की आहट

तेरे कंगना की खनखनाहट
तेरी पायल की झनकार
तेरी नज़रों का झूठा-सा इनकार
यूं छा जाता है, अब भी, नशे-सा
मन पर, स्मॄति-तन पर ।

कुछ खुमार रहता था

पल हर पल बेकरार रहता था
कुछ करना होता था
बेख्याली में कुछ और ही करता था
जन्नतें, आसमा के परे ले जाता था
महज़ तेरा, इक ख्याल भर ।।

Ravi Sisodia 'Pankh'
Sunday, February 17, 2013 | By: Unknown

कल और आज ...

कल मैं था, तू थी -
और संग तेरी खामोशी थी
कुछ अदाएं तेरी, कुछ सरगोशी थी
तेरा नशा-सा था मुझ पर
एक मदहोशी-सी थी
कल मैं था, तू थी ।
शमा हसीन था, फ़िज़ा में रवानी थी
तेरी ज़ुल्फ़ों की अठखेलियाँ थी गिर्द
हर चीज़ लगती रुहानी थी
कल मैं था, तू थी ।
तेरे चेहरे पे गरमजोशी थी
मैं करीब था तेरे, तू मेरे
उलझनों से परे ज़िन्दगानी थी ।

Ravi Sisodia 'Pankh'
Tuesday, January 29, 2013 | By: Unknown

The Confrontation

In the light, in the dark
Confined to a single mark
Whenever I rise a li'l
Come a dog with horrendous bark

I have an extreme roar in my heart
And also giving it full remark
Being afraid and pushed a back, yet
repatriate my passion to corner arc
 
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